ग़ज़ल
खोल कर दिल के
दरीचे रौशनी आने भी दो
चश्म को सैलाब
खुलकर अब ज़रा लाने भी दो
ज़ख्म गर ढकते रहे
तो भर नहीं पाते कभी
तोड़ कर मन का कफ़स
ये दर्द बह जाने भी दो
राज़ देखो खुल रहे
है टूटने है दिल कई
वो कसम झूठी जो
खाए अब उन्हें खाने भी दो
खैरियत सबकी रहे
कुछ और मैं मांगूँ नहीं
अब तराने प्रेम
के हर शख्स को गाने भी दो
उम्र भर ढूंढा ‘किरण’ बस एक कतरा छाँव का
दो घडी को आज ठहरो
कुछ सुकूँ पाने भी दो
-विनिता सुराना ‘किरण’

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