आकाश

एक सूक्ष्म सा बिम्ब,
तपस्वी सा निश्छल,
निर्लिप्त व निष्पक्ष,
कोख के अंधेरों में अठखेलियाँ करता,
धीरे-धीरे आकार लेता,
साथ ही ग्रहण करता,
तत्व मानवीय जीवन के.
अवतरित होता है एक नव-युग में
तेज़ प्रकाश में चुंधियाई आँखें
अभ्यस्त हो जाती है और भूल जाता है
वो सुरक्षित कवच अँधेरे का
रमता जाता है आडम्बर में
वसन ओढ़ता जाता है मोह-माया के,
सीता जाता है एक-एक सितारा
नित नयी अभिलाषा का
और आकार लेने लगती है आकाशगंगा
जहाँ भ्रमित सा भटकता है असंख्य
सितारों, ग्रहों, उल्कापिंडो के मध्य
लुभावने प्रकाश से सम्मोहित
फँसता जाता है भंवर में
चाह लिए मन में छूने की
मानवीय आकांक्षाओं का असीमित व अंतहीन आकाश.
-विनिता सुराना 'किरण'

Comments

Popular posts from this blog

Kahte hai….

Chap 25 Business Calling…

Chap 34 Samar Returns