'तुम' बस 'तुम'
तुम पास नहीं, साथ भी नहीं
फिर भी जाने क्यों लगता है
तुम हो यहीं कहीं ... जैसे हाथ बढाऊँ और छू लूँ तुम्हें!
जाने ये कैसा आभास है,
कैसा अहसास है,
तुम, तुम्हारा होना
कुछ नया भी नहीं
बस है, जैसे हमेशा से था
मैं अक्सर तुम्हें गुनगुनाते हुए सुनती हूँ
रात की खामोशियों में,
अक्सर महसूस करती हूँ तुम्हें
अलसुबह नरम गीली घास पर मेरे कदमों से कदमताल मिलाते,
तुम्हारी हथेली की वो हल्की सी छुअन
मुझे सिहरन दे जाती है ...
घर के सामने बगीचे में लगे
गुलमोहर से झरते फूलों का स्पर्श पाकर
ऐसे चौंक जाती हूँ जैसे
तुमने उंगलियों से मेरे गालों पर सरक आयी बालों की लट को हौले से हटाया हो
वो कुंवारा सा स्पर्श,
वो मीठी सी गुदगुदी,
वो धड़कनों का यकायक तेज हो जाना,
साँसों का बोझिल हो जाना,
सब कुछ वैसा ही है
कभी नहीं बदला ...
जितना जानती जाती हूँ तुम्हें
थोड़ा और जानने की प्यास रह जाती है,
जाने क्यूँ मुझे अब भी तुम्हारी आदत नहीं हुई
अगर हो जाती तो ये जादुई छुअन बरकरार कैसे रहती ?
सुनो,
तुम हमेशा ऐसे नए-नए,
अधूरी प्यास जैसे रहना,
ऐसे ही अच्छे लगते हो तुम !
💕 किरण
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