देह से मन तक ...प्रेम तुम्हीं थे
सुप्त से पन्नों पर मन के
सुर कितने बिखेर गया वो
ख़ामोश अहसासों ने करवट ली
फिर एक नज़्म लिखी गयी
प्रेम को उकेरा उसने
तो जी उठा हर लफ्ज़
उसकी छुअन से महक उठी थी वो
उसके आगोश में बंधी उकेर रही थी
उसी की पीठ पर अपना नाम
मगर नादान फिर भूल गयी
कि नाम लिख देने भर से
मिल्कियत नहीं हो जाता प्रेम
नाम का क्या है, धो दिया जाएगा
हर अहसास पानी के चंद छींटों से
प्रेम नहीं जीता देह पर
वो बस उगता है मन की नम ज़मीं पर
और घुल जाता है नसों में
तभी तो निरंतर है प्रेम
और देह बस चाह दो घड़ी की !
#सुन_रहे_हो_न_तुम
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