गुमनाम मोहब्बत
कहा था न मैंने जो मुझे जानना चाहो तो ये रस्मो रिवाज़ और बंदिशों को परे रखकर कोशिश करना ... कफ़स में हुई तो क्या मन तो पंछी है खुले आसमान का, उसे क़ैद नहीं कर सकता कोई और न रोक सकता है अपने साथी से मिलने से .. हाँ तकलीफ तो होती है देखकर कि मेरे मन पर दस्तक तो दी तुम्हारे मन ने पर ये दिमाग़ तो मन का बैरी है, ये समझने में नाकाम रहे .. अब वक़्त-ए-रुख़सत में न मेरे पास कहने को कुछ रहा और न तुम ही कुछ कह पाए .. तुम दूर खड़े मुझे जाते देख रहे थे और बस में गाना बज रहा था "तो क्या हुआ जुदा हुए मगर है खुशी मिले तो थे तो क्या हुआ मुड़े रास्ते में कुछ दूर संग चले तो थे दोबारा मिलेंगे किसी मोड़ पे जो बाकी है वो बात होगी कभी चलो आज चलते हैं हम फिर मुलाकात होगी कभी फिर मुलाकात होगी कभी जुदा हो रहे हैं कदम फिर मुलाकात होगी कभी" गिला एक ही रहा, काश कि एक बार गले लग कर रो लिए होते तो बह जाते वो आंसू जो ज़ह्र बनकर उतर गए भीतर और मौत का सबब बन गए हमारी पाक मोहब्बत के ! #सुन_रहे_हो_न_तुम