ख़त बिटिया का


     मुझे लाड़ो कहा करते हो न पापा, आपकी चिनिया हूँ न माँ,
पर फिर भी बांधे हो अपने इर्द-गिर्द
कितने बंधन रस्मो के,
रिवाज़ों के,
दस्तूर कह कर ज़माने का,
मन में बांध ही ली एक गांठ
मेरे पराये होने की !
       क्या चुनूँ मैं बोलो न ..
किताब-क़लम
या हिना सुहाग की,
क़दम बढाऊँ आत्मनिर्भर होने को
शिक्षा-संकुल की ओर
या पहन कर घुँघरू वाली पायल
किसी आँगन को चहकाऊं ?
       हाँ माना हक़ है आपको
चुन लो मेरा रास्ता
पर किसी सुबह
अगर हिना लहू सी दिखी हथेली पर
और पायल बेड़ियों सी पाँव में
तो कैसे देख पाऊंगी
आपकी झुकी नम आँखों में
अपराधियों सा भाव !

💕किरण

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