डायरी से
पुरानी डायरी के उन बोसीदा पन्नों में
एक वरक़ नया सा है अब भी,
तमाम खारी बारिशें नहीं धो पायीं
उस पर उकेरे अल्फ़ाज़,
वही वरक़ तो गवाह रहा है
ख़ुश्क रातों में जागती नम आंखों का
हवाओं से बारहा लड़ते उम्मीद के चराग़ का
धुंधले ख़्वाबों के पार झलकते रंगों का ...
वही एक पन्ना तो अब तक संभाले है
मटियाते शब्दों की उस जर्जर इमारत को !
©किरण
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