तुम्हारी परी
"काश मैं भी अभी छत पर आ पाती... कितनी मस्त हवा चल रही है !"
"हैं ! अब तुम्हें कैसे पता चला मैं छत पर आया हूँ ?" उसने हैरानी से पूछा
"तुम्हारे कदमों की आहट से ..." उसने मुस्कुराते हुए कहा , "जब तुम फ़ोन उठाते ही छत की सीढ़ियों की ओर तेज़ कदमों से बढ़ते हो और फिर आराम से बतियाते हुए सीढियां चढ़ते जाते हो, तो समझ आ जाता है ।"
"अच्छा ! और तुम्हें ये भी पता चल गया ... ओह्ह यानि वहाँ भी मौसम का मिजाज़ ऐसा ही है ... तुम कहीं मेरे ही शहर में तो नहीं ?" हैरानी से वह पूछ बैठा
"हाँ वहीं तो हूँ, जहाँ तुम वहाँ मैं ! कब से देख रही हूँ तुम हवा में झूमते बालों को संवारने की नाकाम कोशिश में लगे हो, छोड़ दो न उन्हें आज़ाद ... देखो कितने मस्त लगते हैं तुम्हारे माथे को चूमते हुए ..." मंद-मंद मुस्कुराते हुए शरारती अंदाज़ में वह बोली तो एक बारगी चहलक़दमी करना भूल इधर-उधर देखने लगा वह।
"अब इधर-उधर क्या ढूंढ रहे ?" उसकी खिलखिलाहट हवा में घुल गयी
"यार तुम कैसे सब देख लेती हों इतनी दूर अपने शहर में बैठे ? सच बताओ ये क्या जादू है ?"
"ये चाहत का जादू है मितवा और तुम्हीं तो कहते हो मैं तुम्हारी परी हूँ ... परी के लिए कुछ भी नामुमकिन नहीं ...बस आंखें बंद करती हूँ और सब दिखाई देने लगता है " उसकी आवाज़ में वह चिर-परिचित शरारती लहज़ा बरक़रार था ।
"काश न दिखाई देता तो तुम समझ पाती मेरी ये तड़प, ये बेचैनी तुम्हें एक नज़र देखने के लिए... " एक ठंडी आह बरबस निकल आयी उसके मुँह से और फ़ोन के दूसरे सिरे पर फिर गूँज उठी एक मीठी सी हँसी ।
#सुन_रहे_हो_न_तुम
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