दो क़दम ज़मीं
पंखों से नाज़ुक और हल्के ख़्वाब कब लेते हैं इजाज़त आंखों में समाने की ...बस ले उड़ते है मन को अपने साथ और दूर बहुत दूर तक जाने के बाद फिर एक दिन एहसास होता है कि लौट जाने का समय हो चला धरातल पर, हक़ीक़त के धरातल पर ... जब ज़मीन आंखों से ओझल होने लगे तब मन घबराने लगता है ...
उड़ान कितनी भी लंबी हो, आसमान की ऊंचाई कितनी भी नाप ले पर दो कदम की ज़मीं हर पंछी की जरूरत है । ख्वाबों के इंद्रधनुष बहुत लुभाते हैं अब भी, वो नम हुई मन की मिट्टी की सौंधी महक, वो निश्छल प्रेम का कल-कल बहता झरना, वो घनेरे बादल मीठे अहसासों की बूंदों से लबालब ... मगर हक़ीक़त तब भी नहीं बदलती, न ही बदलता है वो शुष्क कोना जो अरसे से महरूम है एक बूंद मीठे पानी से ।
बहुत गहरी थी इश्क़ की मदहोशी मगर ज़िन्दगी की हक़ीक़त बड़े जोर से दे रही थी दस्तक ... आख़िर टूट ही गयी ख़ुमारी और ख़्वाबों के परिंदे लौट आये अपनी उड़ान से, तलाश रहे हैं कोई बसेरा फिर किसी हसीन जोड़े की आंखों में ...
#सुन_रहे_हो_न_तुम
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