कोहरे की चादर

बारीक बूँदों से बुनी कोहरे की चादर ओढ़े रुई के गोले से आसमान से नीचे उतरते आ रहे थे मानो आगोश में लेना चाहते हों मुझे और मैं बस मुग्ध सी देखती ही रही धीरे-धीरे उन्हें अपने करीब, और भी करीब आते हुए जब तक मेरे चेहरे पर चुनरी बन लिपट न गए...
       दोनों हाथ फैलाये मैं कमरे के बाहर बालकनी में खड़ी अपनी आंखें मूंदे बस महसूस करती रही वो नरम सा, नम सा मासूम, निश्छल स्पर्श, जो हौले-हौले मेरे रोम-रोम को जगा रहा था पर एक नीम मदहोशी सी मन पर छाने लगी थी।                      
          सुबह जब यहीं दूसरी मंजिल पर खड़े हुए, नीचे की ओर नज़र गयी तो घटाओं से निकलते झरनों की जलधारा का अद्भुत नृत्य देख मैं तब भी मुग्ध हो गयी थी, देर तक शायद बिना पलक झपके झर-झर झरते अमृत और भीगती हुई मदहोश सी घास को अंगड़ाई लेते देखती रही थी पर तब की मुग्धता अब की इस नीम मदहोशी से अलग थी जैसे अजीब सा चुम्बकीय आकर्षण है इस दूधिया चादर में और मैं बेतकल्लुफ़ सी बेकरार हो उठी उस नरम आगोश में समा जाने को ... एक पल को ऐसा लगा मैं गिर रही हूँ शायद उस गोल बालकनी से नीचे फिर तुमने आवाज़ लगा रोक लिया मुझे और मैं संभल गयी उस फिसलन से !

#विनीता किरण

#महाबलेश्वर_डायरी

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