अधूरी सी प्यास
तुम पास नहीं, साथ भी नहीं
फिर भी जाने क्यों लगता है
तुम हो यहीं कहीं ... जैसे हाथ बढाऊँ और छू लूँ तुम्हें!
जाने ये कैसा आभास है,
कैसा एहसास है,
तुम, तुम्हारा होना
कुछ नया भी नहीं
बस है,
जैसे हमेशा से था
और हमेशा रहेगा...
सुनो, तुम शब्दों से परे हो,
हमारे बीच खामोशियाँ बोझिल नहीं,
संगीत सी लगती हैं,
मैं अक्सर तुम्हें गुनगुनाते हुए सुनती हूँ
जब सूखे पत्ते मेरे साथ अठखेलियाँ करते हैं
अलसुबह की मदमस्त सी सबा में..
नरम गीली घास में मेरे कदमों से कदमताल मिलाते,
तुम्हारी हथेली की वो हल्की सी छुअन
मुझे सिहरन दे जाती है ...
वो बड़े से पेड़ की डालियाँ
जब झुक कर हौले से सहला जाती हैं
तो चौंक जाती हूँ
वो कुंवारा सा स्पर्श,
वो मीठी सी गुदगुदी,
वो धड़कनों का यकायक तेज हो जाना,
साँसों का बोझिल हो जाना,
सब कुछ वैसा ही है
कभी नहीं बदला ...
जितना जानती जाती हूँ तुम्हें
थोड़ा और जानने की प्यास रह जाती है,
जाने क्यूँ मुझे तुम्हारी आदत नहीं हुई अब तक,
अगर हो जाती तो ये जादुई छुअन बरकरार कैसे रहती ?
सुनो,
तुम हमेशा ऐसे नए-नए,
अधूरी प्यास जैसे रहना,
ऐसे ही अच्छे लगते हो तुम !
©विनीता सुराना किरण
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