क्या चले ही जाओगे ?
कैसे सोच लिया,
तुम जाओगे ...
और चले ही जाओगे ?
मैं तुम्हें नहीं रोक पाऊँगी,
तुम्हारा जाना नियति है
पर फिर भी कहो तो...
कैसे जाओगे ?
नहीं जानते क्या,
मैं आज भी वही हूँ
जो इत्र की खाली शीशी छुपा दिया करती थी
अपनी अलमारी में
और फिर कई महीनों तक महका करती थी वो अलमारी
और उसमें रखी हर चीज...
अगरबत्ती के खाली पैकेट और पन्नियाँ
हर दीवाली की सफाई में,
मेरी मेज की दराजों से ही तो निकलते थे,
सब हँसते थे उन्हें देख कर
पर मुझे तो वो भीनी सी ख़ुशबू पसंद थी,
जो दराज़ में रखी मेरी कलम से लिपट जाया करती थी
पूजा के लिए आई गैंदे की माला के साथ
वो गुलाब की आठ-दस पत्तियां ..
चुपके से दबा आती थी अपनी किताबों के पन्नों में
शायद तभी उस महक के साथ ही
उन किताबों के शब्द भी रच-बस जाते थे मुझमें !
अब भी तुम्हें लगता है,
तुम जाओगे तो
चले ही जाओगे ?
जाकर भी अपनी ख़ुशबू को मुझसे जुदा किस तरह कर पाओगे ?
विश्वास नहीं .... तो महसूस करो,
मेरे अल्फ़ाज़ यूँ ही नहीं महकते
मेरी डायरी में !
©विनीता सुराना किरण
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