पतझड़ और रंग

दूर जाने कौन बजा रहा है विरह की धुन ?
उफ्फ ! ये कैसा मातम है ... चुभते हुए रुदाली से स्वर
चीरते है भीतर तक,
कोई तो रोके उसे,
समझाए ज़रा ....
हाँ माना पतझड़ की रुत है
पर मेरी नज़र से देखो
कैसे झरते हैं अहसास इन पत्तो में
जैसे हर डाल ने भेजे हो
महीनों से सहेजे प्रेम-पत्र
मानो कह रहीं हो ...
“लो बहुत संभाल लिए तुम्हारे साझा किये
वे बेशकीमती पल,
वे मीठी सी शिकायतें,
वे मासूम उलाहने,
वस्ल के लम्हे,
और हिज्र की लम्बी रातें भी,
अब रिक्त हो चुकी डालियों के कैनवास पर
सजा लो अपने मनचाहे यादों के रंग,
फूट जाएँगी फिर नयी कोपलें
छा जाएगी अबीर हवा में
भिगो देंगी फुहारें
रंगों के त्यौहार में
चितेरा-मन फिर ढालेगा रंगों में
कुछ नक्श नए,
कवि-मन फिर रचेगा शब्दों में
कुछ प्रेम-गीत,
और फिर सजेगी हर डाल पर

नयी प्रेम-पातियाँ !”

©विनीता सुराना किरण 

Comments

Popular posts from this blog

Happiness

Chap 28 HIS RETURN…..

Kahte hai….