लम्हे उधार के
ये वक़्त
कुछ लम्हे उधार दे अगर,
फिर एक बार महसूस करूँ
तुम्हारे लबों का स्पर्श अपने माथे पर,
तुम्हारी महक अपनी साँसों में,
मेरी बंद पलकों पर वो सारे सपने
जो तुम रख दिया करते थे चुपके से,
फिर एक बार जी लूँ
वो भीगे से जज़्बात जो महक उठते थे
पहली बरसात में भीगी मिट्टी के साथ,
सुनो न,
एक अरसा हुआ तुमसे मिले,
दिल की ज़मीं पर अब
नहीं होती ओस की नमी,
जम गयी है बर्फ़ सी
तुम क्या गए,
संग तुम्हारे धूप भी चली गयी..
लौट आओ न
लेकर फिर वो हमारे साथ के लम्हे
फिर पिघल जाएगी बर्फ़
बस...
फकत कुछ अहसास सुलग जाएं !
©विनीता सुराणा किरण
Comments