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Showing posts from December, 2016

क्या सचमुच मुमकिन है ?

क्या सचमुच मुमकिन है तुम्हारा स्पर्श देह से होकर न गुज़रे और सीधे मन को सहलाए... क्या सचमुच मुमकिन है तपिश मुहब्बत की बिना जलाए रूह तक गर्माहट ले आए... क्या सचमुच मुमकिन है शब्द...

जीवित

तुम्हारे कमरे में बेतरतीब सी बिखरी पर ज़िन्दगी से लबरेज़ तुम्हारी चीज़ें, तुम्हारी स्केच बुक में मुस्कुराते, खिलखिलाते चेहरे तुम्हारी आधी पढ़ी किताबों में दबे, पन्नों पर उक...

साँझ के धुँधलके में

हौले से जब उतरती है साँझ, कुछ कतरनें रौशनी की लिए, नीले आसमाँ पर टंगा दिखाई देता है आधी बुझी कंदील सा आधा चाँद, दूर कसमसाता वो तन्हा सितारा, तब पार्क की खाली बेंच पर बैठे, अक्सर ...