क्षणिकाएं
अब क्या शिक़वा,
कैसी शिक़ायत !
जितना क़र्ज़ था
मेरी उम्मीदों का,
बस एक मुस्कुराहट से उतर गया....
***
हासिल होता है सुकूँ
कभी ख़ुद को खोकर भी !
***
सुरूर बेहिसाब रहा
जाम-ए-इश्क़ का,
फिर भी जाने क्यूँ...
इक आख़िरी घूँट की प्यास
बाकी ही रही !
***
©विनीता सुराणा किरण
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