हाँ ...सिर्फ़ तुम्हें !
'तुम',
महज़ एक एहसास हो?
लफ़्ज़ दर लफ़्ज़
लिखती हूँ तुम्हें
अपने मन के कोरे पन्ने पर,
तुम्हारी महक
ठंडी हवा सी सरसराती
घुल जाती है मेरी साँसों में
और पिघलने लगते हैं जज़्बात...
अक़्सर उँगलियों में कंपन सा
महसूस होता है
जैसे स्पर्श किया हो तुम्हें,
कितना शोर करती हैं तब
धड़कनें भी
जैसे तुमने छेड़े हो तार कहीं मेरे भीतर,
ज़िद करने लगती हैं आँखें
तुम्हें एक झलक देखने की
और मैं डूबती-उतरती सी
अक़्सर उकेरती हूँ तुम्हारा अक़्स
अपनी कल्पना में
अपनी आधी नींद के ख़्वाब में
और जीती हूँ तुम्हें,
सिर्फ़ तुम्हें,
हाँ ...सिर्फ़ तुम्हें !
©विनीता सुराणा 'किरण'
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