तुम
कल फिर कुछ लम्हें
चुरा लायी हवा
माज़ी के पन्नों से ...
फिर महक उठी तन्हाईयाँ,
जी उठी कुछ पल के लिए
सूनी सी डायरी,
फिर बुने ताने-बाने
अल्फाज़ की चादर में
कुछ हसीन ख़्वाब,
कुछ मीठी सी ख़्वाहिशें,
थोडा सा दर्द,
थोड़ी सी नमी,
बंजर सा मन
भीगा है अब भी,
चस्पा है एक भीनी सी महक
अब भी आसपास,
शायद अब भी जीते हो
तुम
मुझमें कहीं ...
©विनीता सुराना 'किरण'
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