जाली
यूँ तो कम ही ज़ाहिर कर पाती हूँ
अपने जज़्बात
तुम्हारे सामने,
न जाने क्यूँ
एक महीन सा पर्दा
हमेशा से रहा है
तुम्हारे मेरे बीच,
कभी मुखर भी हुई तो तुम सुन नहीं पाए
या शायद सुन कर भी
समझना नहीं चाहा,
अपनी सहूलियत के लिए...
शायद डरते होंगे तुम
मैं अपने लिए
अधिकार न मांग बैठूं,
थोड़ी आज़ादी न मांग बैठूं
और तुम सीधे से इनकार न कर पाओ....
आज बहुत हिम्मत जुटाकर
नम आँखों से
तुम्हारी आँखों में देखकर
जब मैंने कहा “घुटन हो रही है मुझे,
कुछ अच्छा नहीं लगता,
रोने का मन करता है,
बस अब और जीना नहीं चाहती....”
पहली बार एक डर देखा
तुम्हारी आँखों में,
मुझे खोने का डर
या मेरे बाद
तन्हा हो जाने का डर,
या फिर उन उलाहनों का डर
जो लोगों की आँखों में नज़र आते ?
जो भी थी वजह
तुमने खोल दी
वो बंद खिड़की
मेरे कमरे की,
जिसे अब तक खोलने की हिम्मत
नहीं जुटा पायी थी मैं ....
कुछ राहत तो महसूस हुई
पर उस खिड़की पर
एक जाली लगा पल्ला भी है
जो बरसो से बंद है,
जाम हो गया है,
कैसे कहूँ,
कैसे समझाऊँ तुम्हें,
ये आधी अधूरी आज़ादी
और भी घातक है मेरे लिए,
बाहर से आते झोंके
ऑक्सीजन ले तो आते हैं भीतर
जीवन देते है मेरे ख़्वाबों को,
मगर उड़ान के लिए आसमान नहीं....
क्योंकि एक महीन सी जाली
आज भी है
मेरे और उस खुले आसमान के बीच ....
©विनिता सुराना 'किरण'
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