कत्लगाह
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वो अँधेरी गलियाँ जिनसे गुज़रकर कम नहीं होते अँधेरे बढ़ते ही जाते हैं..... धुआँ छोड़ती भट्टियाँ जो कभी सांस नहीं लेती एक पल को भी..... एक महीन सी रेखा धूप की चुपके से झांकती है बंद खिडकियों के ऊपर बने छोटे से रोशनदान से ...... एक तीखी सी सीटी चीर जाती है तभी गहरे बोझिल सन्नाटे को और अचानक शुरू होती है भारी हलचल..... बिजली की गति से दौड़ने लगती हैं छोटी-छोटी दुबली-पतली आकृतियाँ नन्हे हाथों में थामे उबलता हुआ पिघला सीसा भट्टियों से सांचों तक ताकि ढल सकें रंगबिरंगी खूबसूरत चूड़ियाँ...... एक अलग सा संसार है इन चूड़ियों का अलग उन सूखे मुरझाएं चेहरों से खुरदरी हो चुकी हथेलियों से कमज़ोर पैरों से जो बिना रुके, थके चलते है रात-दिन पिघला सीसा लिए पात्र सांचों में पलटते पुनः भरने के लिए कभी कसके बंद किये होंठों से छूट जाती है दर्द की कराहें जब एक-दो बूँद छलक जाती है छाले पड़े हाथ-पैरों पर मगर रुकने की इजाजत नहीं देती वो गिद्ध सी आँखें जो निरंतर रखती है पहरा उन पर ...... इन अँधेरी भयानक काल कोठरियों में हर दिन घुटती है...