सपने! हाँ बस सपने
सपने ! हाँ बस सपने
कब हुए हैं अपने ?
बसेरा है आँखों में
पर फिर भी बेगाने ...
ठहरे हैं पलकों की
दहलीज़ पर
भीगे है अनछलके
अश्कों में
कड़ियाँ जोड़ते
ज़िन्दगी की
पर टूट कर बिखरे है
हर कहीं ......
सोयी यादों को सहला
जाते
कभी दिल को तड़पाते
जीवन के कितने रंग
दिखाते
और खुद बैरंग से !
कभी नगमे हसीं
कभी ग़ज़ल विरह की
साथी है अँधेरी
रातों के
उजालों में तन्हा कर
जाते
सपने ! हाँ बस सपने
कब हुए है अपने ??
©विनिता सुराना ‘किरण’
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