पर्वत और नदिया
धीर-गंभीर, तुम पर्वत हो
चंचल-चपला, मैं नदिया हूँ
स्नेहिल
मधुरिम रसधारा हूँ
प्राण-शक्ति
तुम्ही से मिलती
विशाल-हृदय, सुदर्शन हो तुम
मुक्त-माल
बन कंठ शोभती
हारो, थको, न झुको कभी तुम
ये
सीख सदा तुमसे मिलती
संघर्ष
थकाते नहीं कभी
जीवन-रसधारा
जब बहती
सम्पूर्ण
हो, सार-गर्भित हो
सतत
संघर्ष के प्रेरक हो
अनेक
पड़ाव, जीवन
में हो
उत्स्रोत
सदा तुम मेरे हो
©विनिता सुराना 'किरण'
Comments