ग़ज़ल


हासिले गम ही रही गर जिंदगी
मुस्कुरा ले भूल जा उफ़्तादगी

है हुनर जब हाथ में क्यूँ दरबदर
ढूंढता तू फिर रहा कारिंदगी

मात देकर दूसरों को खुश हुआ
जीत ले जो खुद को तो है उम्दगी

है चलन माना दिखावे का बहुत
सुर्खरू फिर भी लगे है सादगी

हो खुलापन दोस्तों में ठीक है
चाहिए गैरों से कुछ पोशीदगी

वो हँसी जो दिल किसी का तोड़ दे
उस हँसी से अच्छी है संजीदगी

हासिले मंजिल नहीं आसां ‘किरण’
रुक नहीं अब चल दिखा आमादगी
©विनिता सुराना ‘किरण’

उफ़्तादगी - आपत्ति, शिकायत
कारिंदगी – नौकरी , उम्दगी – श्रेष्ठता , सुर्खरू –सम्मानित , पोशीदगी- छिपाव , आमादगी – तत्परता

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