ग़ज़ल (तन्हा सी )
गुमसुम गुमसुम रात ढली है तन्हा सी
दुल्हन बिन श्रृंगार लगी है तन्हा सी
होम हुई है यादें तेरी सब लेकिन
पलकों में इक याद जली है तन्हा सी
अपना मिलना पल दो पल का ख्वाब रहा
मन में फिर भी आस पली है तन्हा सी
कसमें रस्में बेजां सी सब लगती है
परछाई भी आज खड़ी है तन्हा सी
बाँट सके खुशियाँ अपनो औ' गैरों
में
सोच 'किरण' लेकर जीती है तन्हा
सी
©विनिता सुराना 'किरण'
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