सूफियाना ग़ज़ल

आईना बन के सदा चलता है मेरा
जब भी भटकी वो पता बनता है मेरा

जब घिरी झूठे उजालों में कभी मैं
वो मसीहा सच मुझे कहता है मेरा

दूर होकर भी करीबी सा लगे है
अजनबी सा ही सही रिश्ता है मेरा

आहटें उसकी मुझे देती सुनाई
वो मुझी में ही कहीं रहता है मेरा

वो अंधेरों में उतर आया किरण बन
वो सहर है मेरी और अता है मेरा 
©विनिता सुराना 'किरण'

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