ग़ज़ल (तुम सा )
नज़र ये ठहरे जहाँ रहो तुम नहीं नज़ारा कहीं भी
तुम सा
तलाश करते रहे किनारा नहीं किनारा कहीं भी तुम
सा
कभी जो क़ुर्बत में घिर गए थे तुम्हीं मुहाफ़िज़
बने हमारे
किया भरोसा है इक तुम्हीं पे नहीं सहारा कहीं
भी तुम सा
अगर खुदा का करम न होता कदम हमारे भटक ही जाते
दिखी जो राहें, न दूर मंजिल,
मिले
इशारा कहीं भी तुम सा
हज़ार तारों का नूर फीका वो नूर अफ़्शां हुआ जो
रोशन
यहाँ भी देखा वहाँ भी देखा नहीं शरारा कहीं भी
तुम सा
हबीब कितने मिले हो तुमको नहीं है कोई ‘किरण’
का
सानी
कमी अज़ीज़ों की थी न हमको मगर न यारा कहीं भी
तुम सा
©विनिता सुराना 'किरण'
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