ग़ज़ल


कभी तनहा लगी राहें कभी तन्हाई अपनी सी
है साथी साथ क्यूँ फिर भी लगी तन्हाई अपनी सी

ख़ुशी ढूंढी जो गैरों में सुकूं कैसे भला मिलता
खुदी से जो मुहब्बत की बनी तन्हाई अपनी सी

गिले थे ज़िन्दगी से जब लगे थे अश्क साथी से
जो देखे ख्वाब आँखों ने सजी तन्हाई अपनी सी

खबर क्या थी कि रहते गुल छुपे खारों में भी अक्सर
खिले जो गुल तो महकी है अभी तन्हाई अपनी सी

अंधेरों में मिली कोई 'किरण' थी आस की इक दिन
अँधेरा भी लगा अपना हुई तन्हाई अपनी सी
©विनिता सुराना 'किरण'

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