ग़ज़ल
हासिले
गम ही रही गर जिंदगी
कर ए
बन्दे अब ज़रा तू बंदगी
है
हुनर जब हाथ में क्यूँ दरबदर
ढूंढता
तू फिर रहा कारिंदगी (नौकरी)
उम्र
भर तू ज़ुल्म ही सहता रहा
हौसला
कर अब जता उफ्तादगी (आपत्ति)
मात
देकर दूसरों को खुश हुए
जीत
ले जो खुद को तो है उम्दगी (श्रेष्ठता)
है
चलन माना दिखावे का बहुत
सुर्खरू
(तेजस्वी, सम्मानित) फिर भी लगे है सादगी
हो खुलापन दोस्तों में ठीक है
चाहिए
गैरों से कुछ पोशीदगी
वो
हँसी जो दिल किसी का तोड़ दे
उस
हँसी से अच्छी है संजीदगी
रास्ते
सीधे मिले तो चुन उन्हें
क्या
जरूरी जीस्त में पेचीदगी
हासिले
मंजिल नहीं आसां ‘किरण’
रुक
नहीं अब चल दिखा आमादगी (तत्परता)
©विनिता सुराना 'किरण'
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