बूँदें
राह भटकी इक बदली 
सौगात लिए बूँदों की 
आयी है भिगोने 
छोटा सा संसार मेरा 
भीगा है तन-मन 
भीगा है आँगन 
भीगे खेत-खलिहान 
बरसा है अमृत हर ओर
झूमी तलैया
झूमा है कँवल 
बुझी है प्यास विरहन धरा की......
पर कहाँ सुन पायी वो बदली 
दबी सी, रुंधी सी सिसकियाँ 
उन अजन्मी जानों की 
जो निराश्रित, असहाय 
धीरे-धीरे खोने लगी थी 
अस्तित्व अपना 
उस नीड़ में 
जिसे तिनका-तिनका बुना था 
उस चिड़िया ने 
और सहेजे थे 
अपने अजन्मे बच्चे......
ये कैसी विडंबना है 
कहीं अमृत तो कहीं विष 
कहीं जीवनदायी तो कहीं विनाशक 
कहीं प्रेम तो कहीं विरह 
बन जाती है बूँदें | 
©विनिता सुराना ‘किरण’

 
 
 
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