सुनहरे पिंजरे का मूक पंछी


पिंजरे का पंछी
टकराता है चोंच
फडफडाता है पंख
करता है प्रयत्न
खोलने को द्वार
शायद कोई हो
जो सुन ले पुकार......

खोलता है पंख पर आसमां कहाँ
मेवों से भरा थाल, फल और पकवान
पर वन के मीठे बेर का स्वाद कहाँ ......

बोझिल सी लगे हर सांस
फिर भी मन में है आस
इस सुनहरी अँधेरे के बाहर
कहीं हो थोडा सा उजास,
भुलाकर प्रलोभन सभी
रोकता नहीं अपने प्रयास......

कहीं जो भोग-विलास में रम गया
विस्मृत कर अपना उद्देश्य थम गया
तो रह जाएगा बनकर
“सुनहरे पिंजरे का मूक पंछी”.
©विनिता सुराना ‘किरण’

Comments

Popular posts from this blog

Happiness

Chap 28 HIS RETURN…..

Kahte hai….