मन
एक सुबह ठिठुरती
सकुचाई सी
कोहरे की श्वेत
चादर में लिपटी
गुनगुनी धूप को
तरसी,
संग एक प्याली
अदरक वाली चाय
और कल की बासी
ख़बरें
अखबार में सिमटी
अलसाया सा मन
कहने लगा मुझसे
"आज कुछ
नहीं ...
न शब्द , न भाव,
न कविता, न ग़ज़ल
बस तुम और
मैं!"
सुन कलम मुस्करायी
लेती एक ठंडी
साँस
ओढ़ डायरी के
स्वच्छ पन्ने
सो गयी.
पर ये क्या ?
फिर दगा दे गया
मन
जा पहुँचा उड़ कर पास
तुम्हारे
अब कहाँ रही
तन्हाई ?
वाचाल सी कुछ
यादें
करने लगी शोर
तुम्हारी प्रीत
की ओस में
भीगे पंख
हो चले भारी
अलसाया मन भूल गया
वापसी की उड़ान
और सिमट गया
आगोश में
तुम्हारे...
कोई शिकायत नहीं मुझे
बस डरती हूँ जब
मेरे चेहरे की
मुस्कान
खोल देती है राज
सारे
मेरे मन के......
-विनिता सुराना 'किरण'
Comments