मंथन
उमड़ते-घुमड़ते है
मन में
कभी जब बादल मंथन
के 
सोचा करती हूँ 
आसान था बहुत 
एक राय बनाना 
तुम्हारे बारे
में 
पर मुश्किल
तुम्हारे अंतर्मन
को जानना
और देख पाना  
अनगिनत दर्द भरे
एहसास 
जो कभी-कभी रोक
नहीं पाते 
चाहकर भी तुम 
और बह निकलते है 
एक सैलाब की तरह 
तोड़कर तुम्हारे
अपने बनाए हुए बाँध 
और तब देख पाती
हूँ  
परतों में छुपे 
‘तुम’ को, 
तुम्हारे निर्मल
अंतर्मन को
तभी थाह मिलती है
उन गहरे अँधेरों
की
जिनमें तुम अक्सर
छुप जाते हो, 
जब बोझिल होती है
आँखें 
अनगिनत खोज-दीपों
की रौशनी से,
एक मासूम बच्चे
का अक्स 
ठहर जाता है मन
की आँखों में 
और घुल जाते है 
सारे गिले-शिकवे
उस खारे जल में.
-विनिता सुराना ‘किरण’

 
 
 
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