विराम

सोचती हूँ कभी,
ये कैसी क्षुधा है ?
जो शांत होती ही नहीं,
धीमे-धीमे सुलगती ही रहती है,
चूल्हे की राख में दबे अंगारों की तरह.
क्या सीमायें उस आकाश की पहले से तय है
किस्मत के पन्नों में ?
तो क्या उड़ान का प्रयत्न व्यर्थ है ?
कैसे जान पाऊँगी कि कहाँ रुकना है ?
उन ख़्वाबों का क्या ?
जो ठहरे है अब भी पलकों की कोर पर,
एक आस लिए कि सुबह होते ही उन्हें उड़ना है
पर रात है कि ख़त्म होती ही नहीं.
यही नियति है मेरी शायद,
एक पन्ने से दूसरे पन्ने तक निरंतर सफ़र
अल्प-विराम तो ले सकती हूँ
पर पूर्ण-विराम ?
नहीं कभी नहीं ......
-विनिता सुराना 'किरण'

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