ग़ज़ल (3)
कभी मसरूफ़ तुम, बेरुख
हम कहीं थे
सितम पर वक़्त के
भी कम नहीं थे
रुके है आज भी उस
मोड़ पर हम
मिले तुम और हम
शायद यहीं थे
कभी देखा न तूने
तो पलटकर
निशाँ वरना हमारे
भी वहीं थे
गिला क्या अब करें
तुमसे सितमगर
उजाले ही मुकद्दर
में नहीं थे
चराग़े रौशनी थी
गुल कभी तो
कभी रोशन सितारे
भी नहीं थे
गिरी बिजली जहाँ
थी टूट कर कल
हमारे आशियाने भी
वहीं थे
-विनिता सुराना 'किरण'
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