पहचान
तुम्हें संदेह है मेरी पहचान पर,
तो क्या सबूत देना होगा,
मेरे ‘होने’ का वो जो मैं हूँ
या फिर ‘न होने’ का वो जो मैं नहीं?
क्या जान पाओगे मुझे
सिर्फ मेरी आवाज़ से?
क्या पहचान लोगे मुझे
सिर्फ मेरी तस्वीर से?
मेरी आवाज़ कैसे बता पाएगी सारे राज़
जो मैंने बरसो छुपा कर रखे है खुद से भी.
नहीं सुनाई देगी तुम्हें वो घुटी सी सिसकियाँ
जो खुद मेरे कानों ने नहीं सुनी.
नहीं सुन सकोगे मेरी आवाज़ में,
वो अनकहे दर्द जो खुद अपने से भी छिपाये
ताकि टूट कर बिखर न जाऊँ.
मेरी तस्वीर में क्या देख सकोगे
उस छोटी सी लड़की को
जो उड़ने के ख्वाब देखा करती थी.
क्या देख पाओगे वो नोचे हुए पन्ने
जिनमें अपनी अनकही शिकायतें
लिख कर मिटा दिया करती थी.
कैसे देखोगे वो हंसी के पीछे की नमी,
वो उदासी, वो अकेलापन.
कैसे रूबरू करा पाऊँगी मैं अपनी ‘हक़ीकत’ से,
अपनी ‘पहचान’ से,
जब मैं खुद ही आज तक तलाश रही हूँ
हक़ीकत अपनी, पहचान अपनी.
© विनिता सुराना
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