सपने
सपने तो सपने होते हैं
सपने कब अपने होते हैं.
आँखों में बसते हैं फिर भी
क्यूँ बेगाने से होते हैं.
पलकों की दहलीज़ पर ठहरे है
कहीं,
अनछलके अश्कों में भीगे हैं
कहीं,
ज़िन्दगी की कड़ियाँ जोडा करते
है
फिर भी टूट कर बिखरे हैं हर
कहीं.
सोई यादों को जगा जाते हैं
कभी,
दिल को यूँ तडपा जाते हैं
कभी,
साँसों के उतार-चढ़ाव में ये
हलचल सी मचा जाते हैं कभी.
जीवन के रंग दिखाते हैं कई
पर खुद बैरंग होते है
साथी हैं अँधेरी रातों के ‘किरण’
उजालों में साथ छोड़ जाते
हैं.
सपने तो सपने होते हैं,
सपने कब अपने होते हैं.
-विनिता सुराना ‘किरण’
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